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तीन दिव्य मछलियां : चूड़धार पर्वत पर स्तिथ श्रीगुल महादेव की अलौकिक लोकगाथा का यात्रा वृतांत

शिमला-2 नवंबर (rhnn) : देवता श्रीगुल महाराज जिन्हें चूड़ेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। शिमला और सिरमौर जिले के मध्य सबसे ऊॅची चोटी चूड़धार (3647 मी.) में निवास करते हैं। इस चोटी से हमें मनमोहक हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं के साथ गंगा के शानदार मैदान भी स्पष्ट दिखाई देते हैं। चूड़धार की प्रभावी स्थिति के कारण जार्ज एवरेस्ट (सर्वेयर जनरल आफ इंडिया) द्वारा उत्तर भारत के एक विशाल भूखण्ड का सर्वेक्षण भी सर्वप्रथम यहीं से किया गया था। श्रीगुल देव हिमाचल में शिमला, सिरमौर, सोलन जिला के साथ उत्तराखंड के जौनसार-बावर तथा उत्तरकाशी क्षेत्र के आराध्य देव हैं।

लोक मान्यता अनुसार श्रीगुल व उनके चार छोटे भाई-बहन बिजट, बिजाई चन्द्रशेखर एवं गुड़ाई का जन्म राजा भुखड़ू के यहाँ दो माताओं से शाया नामक स्थान पर प्राचीन काल में हुआ था। शाया गांव हिमाचल प्रदेश के राजगढ़ (सिरमौर) में स्थित है। माता-पिता की मृत्यु बचपन में ही होने के कारण श्रीगुल, चन्द्रशेखर और गुड़ाई के साथ अपनी मौसी के घर मनौन (राजगढ़) में रहने लगे। इसी प्रकार बिजट और बिजाई सराहाँ (चौपाल) में निवास करने लगे। श्रीगुल की मौसी बहुत क्रूर थी और सभी बच्चों को निरंतर आलोचनाओं एवं प्रताड़ना का सामना करना पड़ता था। एक दिन मौसी ने श्रीगुल को पीने का पानी तक नहीं दिया तथा कटाक्ष करते हुए कहा कि, “इतनी ही प्यास लगी है तो पानी खुद पैदा करो”। यह सुन श्रीगुल क्रोधित हो गये और अपने पैर के एक प्रहार से उन्होंने ‘फागूक्यार‘ की भूमि से मीठे पानी की फुहार पैदा कर अपनी चमत्कारी शक्ति का प्रमाण दिया। क्रोधवश उन्होंने लोहे की ओलावृष्टि भी शुरू कर दी। शरण में आये लोगों, पशु-पक्षियों को उन्होंने एक दिव्य सुरंग से सुरक्षित निकाल लिया, बाकी सभी वहीं पत्थर बन गये। इस स्थान पर आज भी ये विभिन्न आकृतियों वाले असंख्य आलौकिक पत्थर मौजूद है। इस घटना के बाद श्रीगुल अपनी मौसी का घर छोड़ चूड़धार में निवास करने चले गये। चूड़धार में कैसे उन्होंने वहाँ रह रहे चूड़िया दानव (अज्ञासुर) को हरा कर वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित किया की गाथा हम इस लेख में आगे बढ़ते हुए जानेंगे।

मुझे पहली बार 9 वर्ष की आयु में 1993 में परिवार सहित पवित्र चूड़धार यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। माता-पिता, भाई-बहन के साथ हमनें धबास- सराँहा (चौपाल) से यात्रा प्रारंभ की। इस स्थान से चूड़धार लगभग 10 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। अन्य महत्वपूर्ण रास्ता नौहराधार (सिरमौर) से शुरु होता है जहाँ से चूड़धार की दूरी 14 कि.मी. है। दोनों पैदल रास्ते वन्य सम्पदा से भरपुर 66 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में फैले चूड़धार वन्य प्राणी अभ्यारण से होकर गुजरते है। इस अभ्यारण में विभिन्न प्रकार की वनस्पति एवं औषधीय पौधों के साथ वन्य प्राणियों की कई दुर्लभ प्रजातियां भी पाई जाती हैं।

सराँहा में दो-मीनार काठकुणी पहाड़ी शैली में ‘देवता बिजट‘ का भव्य एवं अद्भुत मंदिर स्थित है। बिजट चौपाल तथा सिरमौर क्षेत्र के पूजनीय देव हैं। इस मंदिर के अलावा भी इसी शैली में इनके कई मंदिर इस क्षेत्र में पाये जाते है। आसमानी बिजली के देव होने के कारण इन्हे बृजेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। देवता बिजट के सम्मान में इस क्षेत्र में ‘बिशु जातर‘ तथा ‘चौहकर पूजा‘ आदि उत्सवों का आयोजन बड़ी श्रद्धा से किया जाता है। इस मंदिर में बिजट देव की 14 दिव्य छड़ विराजमान है जो 9 वर्ष में एक बार अपने आधिपत्य क्षेत्र का दौरा करती हैं। तत्पश्चात स्वर्ग के दर्शन के बाद ये छडे़ वापिस मंदिर पहुंचती हैं। स्वर्ग लोक में देवता बिजट की छड़ का स्वागत स्वयं महादेव करते हैं। स्थानीय मान्यता अनुसार चूड़धार पर्वत पर वर्चस्व की लड़ाई में श्रीगुल और बिजट ने चूड़िया दानव (अज्ञासुर) के साथ भीषण युद्ध किया था। युद्ध में दानव के अमोघ प्रहार से बिजट मूर्छित हो गये तथा श्रीगुल ने दैविक मोहरे का रूप देकर उन्हें सराँहा भेज दिया, जहाँ वर्तमान में उनका भव्य मंदिर स्थित है। इस युद्ध में चूड़िया दानव को लोहे की ओला वृष्टि द्वारा पराजित करने के बाद श्रीगुल ने चूड़धार पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। सराँहा बिजट मंदिर की कई अद्वितीय विशेषताओं के साथ मंदिर में केवल विशिष्ट जातियों को ही दर्शन हेतु प्रवेश देने की कुरीति आज भी विद्यमान है।

चूड़धार से निकलने वाली पवित्र जलधारा कल-कल की मधुर ध्वनि के साथ सराँहा होकर बहती है। इसे पार करते हुए मुझे उसमे मछलियों के छोटे बच्चे तैरते हुए दिखाई दिये। ऐसा लग रहा था मानों ये अनजान छोटी मछलियाँ इस पवित्र जल के संगीतमय वातावरण में मंत्रमुग्ध होकर नृत्य कर रही हों। मैंने उत्सुक्तावश अपनी नन्हीं हथेलियों में तीन छोटी मछलियों को उठा लिया और अपने पिता को दिखाने के लिए उनकी ओर चल पड़ा। पिता जी ने उन्हे पानी में वापस छोड़ने के लिए कहा ताकि वे जीवित रह सकें। मै तुरंत वापस गया और थोड़ी दूरी से उन मछलियों को पानी की ओर फेंक दिया। मुझे पता नहीं चला कि वो नन्हीं मछलियां पानी में गिरी या उससे पहले झाड़ी में, उनके जीवित रहने की सम्भावना तभी थी यदि वो पानी तक पहुँच पाई होगी। ये बात मेरे मन में बैठ गई। यदि मछलियाँ बच गई तो ‘पुण्य मिलेगा‘ और यदि मेरे कारण उनकी मृत्यु हुई है तो ‘पाप‘। पवित्र चूड़धार यात्रा के दौरान ये विचार निरंतर मेरे अंतर मन को विचलित कर रहे थे।

सराँहा से आगे बढ़ते हुए घने ‘डांडी के जंगल‘ के बीच मनमोहक ‘हाल्दा-जुब्बड़‘ घास का समतल मैदान आता है। पानी के अनगिनत छोट-छोटे चश्मों द्वारा इस मैदान को निरंतर सिंचित करने के कारण इसकी घास पर चलते हुए ऐसा प्रतीत होता है, जैसे ये जमीन हिल रही हो। इसीलिये इसे हिलता हुआ घास का मैदान (हाल्दा-जुब्बड़) कहते हैं। घर से लाये भोजन के साथ यहां का शुद्ध औषधीय पानी पीकर हमने आगे की यात्रा इस सुंदर विश्राम के बाद शुरू की। आगे का रास्ता कठिन और सीधी चढ़ाई ‘‘डंडा चढ़ाई’’ परन्तु मनोहारिक था। रास्ते में देवदार, बान, कायल, रई, तोष, मोरू इत्यादि सुन्दर वृक्ष इस कठिन रास्ते की शोभा बढ़ा रहे थे। थकानदायक चढ़ाई के बाद ‘‘खड़ाच’’ नामक थोडी सीधी जगह पर घुमंतु गुज्जर समुदाय के अस्थाई घरों में दुध और खोवा का बेहतरीन स्वाद आज भी मुझे याद है। खड़ाच से थोडी चढ़ाई पश्चात रंग बिरंगे फुलों तथा औषधीय पौधों से सुसज्जित अद्वितीय घास का मैदान ‘‘काला बाग’’ आता है। यहाँ से चुड़धार चोटी और श्रीगुल मंदिर के प्रथम दर्शन होते है।

इस स्थान पर स्वर्ग की अनुभूति होती है। इस घास के मैदान में अनेक विभिन्न आकृतियों वाले विशालकाय पत्थर हैं। हर पत्थर की अपनी एक रोमांचक कहानी है, जिसका वर्णन मेरे पिता बडे़ उत्साह के साथ हमसे कर रहे थे। इन लोक गाथाओं में उनका अटूट विश्वास और उस भक्ति-भाव को इन कहानियों के माध्यम से हमें प्रदान करना हमारे लिये एक अविस्मरणीय अनुभव था। ‘‘श्रीगुल का ढोल’’ पत्थर ढोल की तरह आवाज निकालता है। ‘‘शावंली घोड़ी’’ विशालकाय पत्थर को श्रीगुल की घोड़ी माना जाता है। आटा गूंथने की परात आकृति के पत्थर को “असुर की कनाली’’ के रूप में जाना जाता है। मान्यता अनुसार श्रीगुल द्वारा की गई लोहे की ओला वृष्टि से बचने के लिए कनाली उलटी छोड कर असुर अपनी जान बचाने के लिए भाग गया। इसी प्रकार यहाँ पर स्थित इन अद्भुत पत्थरों की कोई न कोई लोक गाथा प्रसिद्ध है।

इस विहंगम रास्ते से गुजरते हुए पता ही नही चला कि कब हम पहाडी शैली में निर्मित श्रीगुल मंदिर के पास पहॅुच गये। मंदिर के प्रवेश द्वार पर दो विशालकाय पत्थर तथा एक पवित्र पानी की बावड़ी (चश्मा) है। मान्यता अनुसार श्रीगुल ने कैलाश मानसरोवर से इस पवित्र जल को यहाँ प्रकट किया है। इस पानी में कैलाश मानसरोवर की तरह ही असंख्य औषधीय गुण सम्मिलित है। विभिन्न उपचारों, धार्मिक आयोजनों, देव छड़ों के स्नान इत्यादि में इस पवित्र जल का उपयोग किया जाता है। मंदिर में श्रीगुल के प्रतीक के साथ एक पौराणिक शिवलिंग जिसे ज्योर्तिलिंग के समान दर्जा दिया गया है, स्थापित है। यह शिवलिंग आज भी उसी मूल स्थान पर पौराणिक वास्तुशास्त्र से निर्मित प्राचीन मुख्य मंदिर में स्थित है। मंदिर के वातावरण में एक अलौकिक आभा, शांति और सकारात्मक उर्जा का प्रवाह महसूस किया जाता है। पूजा अर्चना के दौरान भी उन तीन नन्ही मछलियों का ख्याल मेरे अंतर मन को निरंतर विचलित कर रहा था। यदि मछलियाँ बच गई तो पुण्य मिलेगा, अगर मर गई तो पाप। मुझे विश्वास था की मेरा भविष्य इस प्रश्न का उत्तर जरूर देगा।

मंदिर में पूजा अर्चना पश्चात हम पहाडी की चोटी पर स्थित शिवजी की मूर्ति के दर्शन के लिए चल पडे़। रास्ते में सर्प मुख समान ‘‘चुड़ू का टाबरा’’ नामक विशालकाय चट्टान को देख कर हम सभी मंत्रमुग्ध हो गये। मान्यता अनुसार शिव भक्त चूडू को इस स्थान पर सांप रूपी दानव ने मारने की कोशिश की थी, परन्तु शिवप्रताप से चट्टान से दब कर सांप स्वयं ही मर गया। इस चट्टान को दूर से देखने पर सचमुच ऐसा प्रतीत होता है कि चुड़ू का परिवार आज भी इस चट्टान पर मौजूद है।

चोटी पर पहुँच कर शिव की मूर्ति तथा आस पास के विहंगम दृष्य का नजारा देखने को मिलता है। ऐसा लगता है कि हम स्वर्गलोक पहुँच गये हैं। दूर हरिपुरधार की चोटी पर स्थित सिरमौर जिला की कुल देवी ‘‘भंगायणी माता’’ मंदिर के दर्शन भी इस चोटी से होते हैं। भंगायणी माता श्रीगुल की मुंहबोली बोली बहन है। मान्यता अनुसार प्राचीन काल में श्रीगुल की दिव्य शक्तियों से घबराकर दिल्ली के शासक ने उन्हें छल द्वारा गाय के चमड़े की बेड़ियां पहना कर बंधक बना लिया था। तब भंगायणी माता ने गुग्गा पीर को कारावास का रास्ता बताकर मदद की थी। गुग्गा पीर ने चुहे का रूप बनाकर श्रीगुल की बेड़ियां काट कर उन्हे आजाद कर लिया। इस मदद के लिए श्रीगुल ने आशीर्वाद स्वरूप भंगायणी माता को अपनी मुंहबोली बहन और अपना आधा साम्राज्य दे दिया तथा गुग्गा पीर को भी उनके साम्राज्य में देवता के रूप में पूजनीय होने का दर्जा दिया। भंगायणी माता को न्याय की देवी भी कहा जाता है तथा उनका अभिशाप (दोष) अचूक होने के कारण स्थानीय लोग माता को कभी नाराज नहीं करते। श्रीगुल देवता की स्तुति ही माता के अभिशाप से मुक्ति दिलाती हैं तथा दोनों के एक साथ दर्शन से सभी कष्ट दूर होते हैं। इसी प्रकार गुग्गा पीर को भी चौपाल तथा सिरमौर क्षेत्र में देवता के रूप में पूजा जाता है। स्थानीय लोग इनके सम्मान में हर वर्ष जन्माष्टमी के दूसरे दिन ‘‘जागरा/जगराता’’ रात्रि उत्सव का आयोजन बड़ी श्रद्धा से करते हैं।

चूड़धार चोटी पर स्थित शिव मूर्ति के पूजारी ने हमें वहां मौजूद अदभुत रहस्यों से भी अवगत कराया। वहां पर स्थित पत्थरों के मध्य एक दरार रूपी छेद को पाताल का द्वार कहा जाता है । इस दरार में सिक्के डालने पर भी कोई खनखनाहट सुनाई नहीं देती है। स्थानीय मान्यता अनुसार बरबरीक के सिर को भी श्रीकृष्ण ने इसी स्थान पर महाभारत के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए स्थापित किया था। चूड़धार चोटी पर शिव दर्शन एवं विहंगम दृष्य की अनुभूति पश्चात हम शाम को श्रीगुल मंदिर के समीप सराय भवन में ठहर गये। पैदल चलने से हुई थकान के कारण मै जल्द ही गहरी नींद के आगोश में चला गया, लेकिन उन तीन नन्ही दिव्य मछलियों और अपने भाग्य के असमंजस भरे सपनों ने मेरे अंतर मन को पूरी रात व्यस्त रखा।

यह संयोग है या बचपन की उस नादान घटना का फलचक्र कि कल्पना से परे मैनें पूरे तीन वर्ष 2007 से 2010 तक हिमाचल प्रदेश सरकार में मत्स्य अधिकारी के रूप में मछलियों की सेवा की हैं। शुरू से ही मेरे अंतर मन में अटूट विश्वास था कि उन तीन दिव्य मछलियों के लिए जीवन के तीन वर्ष समर्पित करना मेरी नियति है और इसके बाद अवश्य ही भविष्य में कुछ बेहतर लिखा है। यह इन दिव्य मछलियों का ही आशीर्वाद है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद 2010 में मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए चयनित हो गया। उस संशय और प्रश्न का उत्तर मुझे तब भी प्राप्त नहीं हुआ। क्या वो तीन मछलियां बच गई थी या मर गई थी? मत्स्य अधिकारी के रूप में वो तीन वर्ष पुण्य फल था या पाप का प्रायश्चित, यह संदेह दूर नहीं हुआ। कुछ समय पहले इस विचित्र घटना का वृतांत मैने कहानी के रूप में अपने बच्चों को सोते समय सुनाया। कहानी सुनाने के बाद मैनें यही प्रश्न उनसे पूछा – क्या मछलियां बच गई या मर गई? उत्तर तुरंत, स्पष्ट एवं आश्वस्त करने वाला था -“बच गई पापा”! उस नादान भगवान स्वरूप उत्तर पाकर यह दुविधा अब मुझे कभी परेशान नहीं करती। मैं पूर्ण रूप से आश्वस्त हूँ कि ‘‘वो नन्ही दिव्य मछलियां अवश्य ही बच गई होंगी और उनका आशीर्वाद निरंतर हमारे साथ रहेगा’’।

जय भोले शंकर
सुदेश कुमार मोख्टा (भा.प्र.से)

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